Friday, September 24, 2010

बिहार के नतीजों की ज़मीनी सच्चाई

लोकसभा चुनाव के सिलसिले में बिहार के परिणाम को लेकर कई तरह की बहस जारी है. इस बार यहाँ के चुनावी नतीजे देश की राजनीति के रुझान के विपरीत आए हैं.
ये नतीजे कम से कम दो मायनों में बिल्कुल अलग नज़र आते हैं. पहला यह कि यहाँ भाजपा-जनता दल (यू) को बड़ी जीत मिली और दूसरा यह कि कांग्रेस को फ़ायदे की जगह एक सीट का नुक़सान उठाना पड़ा.
गठबंधन का अभाव
दिलचस्प बात यह है कि राज्य की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की कांग्रेस की रणनीति से उसके विरोधी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को ज़बरदस्त फ़ायदा हुआ.
वहीं कांग्रेस के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के सहयोगियों राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और लोकजनशक्ति पार्टी (लोजपा) को भारी हार का मुँह देखना पड़ा.
चुनाव में मिले वोटों के आंकड़े बता रहे हैं कि अगर यूपीए की घटक पार्टियाँ राजद, लोजपा, कांग्रेस और राष्ट्रवादी काग्रेस पार्टी (राकांपा) एक साथ मिलकर चुनाव लड़तीं तो कम से कम 13 और सीटों पर यूपीए जीत सकता था.



वहीं यादव मतदाताओं में विभाजन की मार लालू पर पड़ी और इसीलिए राजद को मात्र चार सीटें मिली हैं. उनमें से तीन राजपूत और एकमात्र यादव (ख़ुद लालू) हैं.
पाटलिपुत्र में लालू की हार उनके मुस्लिम-यादव जनाधार वाले दावे की हार है.
चुनाव में लालू का साथ तो कांग्रेस ने छोड़ दिया लेकिन यहाँ बिना साथी के आगे बढ़ निकलने की तैयारी कांग्रेस ने नहीं की थी. इसलिए मुस्लिम समर्थन भी उसके काम नहीं आया.
वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अब यह चिंता सता रही है कि भाजपा के साथ रहते वे मुस्लिम हितों के लाख फ़ैसले कर लें, उसका ज़्यादा राजनीतिक फ़ायदा उन्हें नहीं मिलने वाला है.
हम अगर विश्लेषणों पर ग़ौर करें तो बिहार में राजग की जीत के लिए मुख्य रूप से विकास वाले मुद्दे को आधार बनाने वाला प्रचार ज़मीनी सच्चाई से बहुत दूर नहीं तो बहुत क़रीब भी नहीं लगता है. इससे ज़्यादा तर्कसंगत तो शांति व्यवस्था वाली बात लगती है.
 

जातीय समीकरणों पर विकास की चोट

बिहार में इस बार हो रहे लोकसभा चुनावों में एक अहम बदलाव देखने को मिल रहा है. विकास मुद्दा बन कर उभरा है और इससे जाति आधारित वोटिंग पैटर्न को आघात पहुंचा है.
प्रचार के दौरान सभी राजनीतिक दलों के नेता विकास को नारा बना रहे हैं. राजनीतिक समीक्षकों की राय में इस बदलाव का श्रेय एक हद तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जाता है.
मुख्यमंत्री जन सभाओं में खुलेआम कह रहे हैं, "अगर काम से खुश नहीं हैं तो मुझे अगले विधानसभा चुनाव में दूध में मक्खी की तरह फेक दीजिएगा."
जनता और नेता दोनों इसे स्वीकार करते हैं. समस्तीपुर में पान की दुकान चलाने वाले रघुनाथ कहते हैं, "हम लोग तो उसी को वोट देंगे जो काम करता है. अब वो बात नहीं रही. जात-पात के आधार पर वोट नहीं मिलने वाला."
नीतीश सरकार ने महादलित आयोग का गठन किया

मुज़फ़्फ़रपुर के जोगनी गांव निवासी श्यामनंदन पासवान कहते हैं, "हम लोग अच्छी सड़क चाहते हैं, बिजली चाहते हैं. उम्मीदवार चाहे किसी दल का हो, वोट उसी को देंगे जो काम करेगा."
हालाँकि सभी लोग इससे सहमत नहीं हैं. बेतिया के गोपालकृष्ण कहते हैं, "अभी ये नारा तो ठीक लगता है लेकिन जब बटन दबाने की बारी आएगी तो जात-पात का असर फिर दिखेगा. हाँ इतना ज़रूर है कि ऐसी सोंच रखने वाले लोगों की संख्या घटी है. अब सभी जाति में आपको ऐसे लोग मिल जाएंगे जो विकास के नाम पर मतदान करेंगे और उनके लिए उम्मीदवार की जाति अहम नहीं है."
सामाजिक न्याय से विकास तक
बिहार के सामाजिक-आर्थिक मामलों के जानकार शैबाल दास गुप्ता कहते हैं, "विकास नया राजनीतिक एजेंडा बन कर उभरा है. 1991 के बाद सामाजिक न्याय के सियासी एजेंडे पर राजनीति आधारित रही. पिछले बीस साल से राजनीति की धुरी यही थी."

वो कहते हैं, "पटना और मुज़फ्फ़रपुर में लड़कियां बाहर निकलने से डरती थी, अब साइकल से स्कूल जाती हैं. इससे बड़ा बदलाव क्या होगा. ये सुविधा सबको मिल रही है. किसी जाति की हो. कहीं सड़क बन रही है, कहीं पुलिया बन रही है, हर तरफ़ विकास का काम हो रहा है."
कांग्रेस में शामिल हुए साधु यादव, लोक जनशक्ति पार्टी के रामचंद्र पासवान और प्रकाश झा, जनता दल युनाईटेड के वैशाली से प्रत्याशी मुन्ना शुक्ला, दरभंगा से राजद उम्मीदवार मोहम्मद फ़ातमी समेत लगभग सभी प्रत्याशी स्वीकार करते हैं कि चुनाव में मुख्य मुद्दा विकास का है.
हालाँकि राजद के टिकट पर वैशाली से लड़ रहे केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह कहते हैं कि सिर्फ़ विकास के मुद्दे पर चुनाव जीतना मुश्किल है.
वो कहते हैं, "अगर ऐसा होता तो मेरे क्षेत्र में सारे वोट मुझे ही मिल जाते. कहीं जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. विकास मुद्दा ज़रूर है लेकिन बदलाव धीरे-धीरे हो रहा है."
किस हद तक..
स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक सुरेंद्र किशोर कहते हैं, "विकास के साथ-साथ शासकीय व्यवस्था में जनता का विश्वास भी बड़ा मुद्दा है. अपहरण, हत्या में आई कमी और कुल मिलाकर सुरक्षित होने का एहसास जनता की सोंच में भी बदलाव लाई."

लालू ने राजनीति में लांच किया अपने बेटे को

राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष और पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपने बेटे तेजस्वी यादव को गुरुवार शाम पटना में पहली बार प्रेस कॉन्फ़्रेंस में अपने साथ मंच पर बैठाया.
यह देखकर पत्रकारों ने लालू प्रसाद से पूछा कि क्या वो अपने इस पुत्र को औपचारिक रूप से अपनी दलीय राजनीति में उतार रहे हैं?
इसपर लालू प्रसाद यादव बोले, "ये तो हमारी राजनीति में बचपन से ही शामिल है और अब इसे अपने साथ रखकर पॉलिटिक्स की ट्रेनिंग दूंगा."
लालू प्रसाद यादव ने आगे कहा, "इस बार विधान सभा चुनाव में भी तेजस्वी मेरे साथ प्रचार सभाओं में जाएगा और राष्ट्रीय जनता दल के लिए वोट मांगेगा. फिर जब उमीदवार बनने की इसकी उम्र होगी, तब ये चुनाव भी लड़ सकता है."

'समर्थन मांगूंगा'



जब तेजस्वी से पूछा गया कि वो लालू जी के साथ मंच पर भाषण में क्या बोलेंगे, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "जब पापा बोलने लगते हैं तो किसी दूसरे को बोलने का मौक़ा कहाँ देते है! "पत्रकारों ने जब तेजस्वी यादव से कुछ बोलने को कहा तो उन्होंने सकुचाते हुए सब को प्रणाम किया और कहा "फ़िलहाल तो पापा के साथ प्रशिक्षण लूँगा और इस बार लोगों से समर्थन भी मांगूंगा. लेकिन इतना तय है कि इस बार 'चाचा नीतीश कुमार' का बिहार के चुनाव में सफ़ाया हो जायेगा."
क्रिकेट खेलने में ज़्यादा दिलचस्पी रखने और क्रिकेट के लिए ही ज़्यादा समय देने वाले तेजस्वी यादव पिछले कुछ समय से चर्चित रहे हैं. गौरतलब है कि वो रणजी ट्राफी की एक टीम में भी शामिल रहे हैं.