लोकसभा चुनाव के सिलसिले में बिहार के परिणाम को लेकर कई तरह की बहस जारी है. इस बार यहाँ के चुनावी नतीजे देश की राजनीति के रुझान के विपरीत आए हैं.
ये नतीजे कम से कम दो मायनों में बिल्कुल अलग नज़र आते हैं. पहला यह कि यहाँ भाजपा-जनता दल (यू) को बड़ी जीत मिली और दूसरा यह कि कांग्रेस को फ़ायदे की जगह एक सीट का नुक़सान उठाना पड़ा.
गठबंधन का अभाव
दिलचस्प बात यह है कि राज्य की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की कांग्रेस की रणनीति से उसके विरोधी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को ज़बरदस्त फ़ायदा हुआ.
वहीं कांग्रेस के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के सहयोगियों राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और लोकजनशक्ति पार्टी (लोजपा) को भारी हार का मुँह देखना पड़ा.
चुनाव में मिले वोटों के आंकड़े बता रहे हैं कि अगर यूपीए की घटक पार्टियाँ राजद, लोजपा, कांग्रेस और राष्ट्रवादी काग्रेस पार्टी (राकांपा) एक साथ मिलकर चुनाव लड़तीं तो कम से कम 13 और सीटों पर यूपीए जीत सकता था.
वहीं यादव मतदाताओं में विभाजन की मार लालू पर पड़ी और इसीलिए राजद को मात्र चार सीटें मिली हैं. उनमें से तीन राजपूत और एकमात्र यादव (ख़ुद लालू) हैं.
पाटलिपुत्र में लालू की हार उनके मुस्लिम-यादव जनाधार वाले दावे की हार है.
चुनाव में लालू का साथ तो कांग्रेस ने छोड़ दिया लेकिन यहाँ बिना साथी के आगे बढ़ निकलने की तैयारी कांग्रेस ने नहीं की थी. इसलिए मुस्लिम समर्थन भी उसके काम नहीं आया.
वहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अब यह चिंता सता रही है कि भाजपा के साथ रहते वे मुस्लिम हितों के लाख फ़ैसले कर लें, उसका ज़्यादा राजनीतिक फ़ायदा उन्हें नहीं मिलने वाला है.
हम अगर विश्लेषणों पर ग़ौर करें तो बिहार में राजग की जीत के लिए मुख्य रूप से विकास वाले मुद्दे को आधार बनाने वाला प्रचार ज़मीनी सच्चाई से बहुत दूर नहीं तो बहुत क़रीब भी नहीं लगता है. इससे ज़्यादा तर्कसंगत तो शांति व्यवस्था वाली बात लगती है.